देशप्रेमियों में सबसे पहला नाम भगत सिंह का लिया जाता है।
ऐसे विरले ही लोग हुए जिन्होंने अपने देश के लिए अपनी मां की ममता को भी कम तवज्जो दी। इस तरह के देशप्रेमियों में सबसे पहला नाम भगत सिंह का लिया जाता है। हंसते-हंसते देश पर अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले ऐसे शहीद-ए-आजम भगत सिंह की आज (28 सितंबर) जयंती है। उनका जन्म लायलपुर जिला (फैसलाबाद, पाकिस्तान) के बंगा गांव में हुआ था।
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इनके पूर्वजों का जन्म पंजाब के नवांशहर के समीप खटकड़कलां गांव में हुआ था। खटकड़कलां इनका पैतृक गांव है। 23 मार्च, 1931 को जब उनकी उम्र मात्र 23 साल, 5 मास व 25 दिन थी उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में राजगुरु व सुखदेव के साथ शाम 7.33 बजे फांसी पर लटका दिया गया था। 28 सितंबर 1907 का वो एक सामान्य दिन नहीं था, बल्कि भारतीय इतिहास में गौरवमयी दिन के रूप में दर्ज हो गया।
अविभाजित भारत की जमी पर पैदा हुए थे भगत सिंह
उनका जन्म अविभाजित भारत की जमीं पर हुआ था। शहीद भगत सिंह का जन्म जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) के गांव बावली में एक सामान्य परिवार में हुआ था। भगत सिंह को जब ये समझ में आने लगा कि उनकी आजादी घर की चारदीवारी तक ही सीमित है तो उन्हें दुख हुआ। वो बार-बार कहा करते थे कि अंग्रजों से आजादी पाने के लिए हमें याचना की जगह रण करना होगा। भगत सिंह की सोच उस समय पूरी तरह बदल गई, जिस समय जलियांवाला बाग कांड (13 अप्रैल 1919) हुआ था।
बताया जाता है कि अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम से वो इस हद तक व्यथित हो गए कि पीड़ितों का दर्द बांटने के लिए 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला पहुंचे। भगत सिंह के बगावती सुरों से अंग्रेजी सरकार में घबराहट थी। अंग्रेजी सरकार भगत सिंह से छुटकारा पाने की जुगत में जुट गई। आखिर अंग्रेजों को सांडर्स हत्याकांड में वो मौका मिल गया। भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाकर उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।
फांसी से पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था।
उन्हें यह फिक्र है हरदम, नयी तर्ज-ए-जफा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्या गिला करें।
सारा जहां अदू सही, आओ! मुकाबला करें।।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
लेनिन की जीवनी पढ़ने की थी अंतिम इच्छा
23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7.33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी दिए जाने से पहले जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था कि ठहरिये ! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले कि ठीक है अब चलो…
फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे
मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे
मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।
काकोरी कांड से जब विचलित हुए थे भगत सिंह
काकोरी कांड नें राम प्रसाद बिस्मिल समेत 4 क्रान्तिकारियों को फांसी और 16 क्रांतिकारियों को कारावास की सजा से भगत सिंह बहुत ज्यादा परेशान हो गए। चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए और संगठन को नया नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दिया। इस संगठन का मकसद सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था।
भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी सांडर्स को मारा था। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान में नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन
1923 में भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के दिनों में उन्होंने कई नाटकों राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत दुर्दशा में हिस्सा लिया था। वह लोगों में राष्ट्रभक्ति की भावना जगाने के लिए नाटकों का मंचन करते थे। भगत सिंह रूस की बोल्शेविक क्रांति के प्रणेता लेनिन के विचारों से काफी प्रभावित थे। उन्होंने लाहौर के सेंट्रल जेल में ही अपना बहुचर्चित निबंध ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लिखा था। स्कूली शिक्षा के दौरान ही भगत सिंह ने यूरोप के कई देशों में तख्ता-पलट और क्रांति के बारे में पढ़ना शुरू किया। उन्होंने नास्तिक क्रांतिकारी विचारकों को पढ़ा और उनका झुकाव क्रांतिकारी विचारधारा की तरफ होने लगा। भगत सिंह ने बहुत कम उम्र में ही देश-विदेश के साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन कर लिया था।
नोएडा के नलगढ़ा में बना था असेंबली में फेंका गया बम
देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों ने नोएडा के नलगढ़ा गांव को अपना ठिकाना बनाया था। इनमें सरदार भगत सिंह भी थे। दिल्ली के नजदीक होने के कारण इस गांव में बना विजय सिंह पथिक आश्रम आजादी के दीवानों के लिए महफूज जगह बन गया था। अंग्रेज सेना पर हमला करने के बाद क्रांतिकारी यहां आसानी से छिप जाते थे। बीहड़ क्षेत्र होने की वजह से अंग्रेज सेना का यहां पहुंचना संभव नहीं था। शहीद भगत सिंह व चंद्रशेखर आजाद आश्रम में बम बनाते थे। गांव में बिखरी निशानियां आज भी इसकी गवाही देतीं हैं। असेंबली पर फेंका गया बम भी यहीं बनाया गया था।
हरनंदी के किनारे बसा नलगढ़ा गांव
नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे के किनारे बसा नलगढ़ा गांव पहले हरनंदी (हिंडन) और यमुना नदी के बीच में पड़ता था। दोनों नदियों के बांध बन जाने के कारण अब यहां पहुंचना आसान हो गया है, लेकिन पहले नदी के पानी के बीच और घने जंगल से होकर गांव में पहुंचना पड़ता था। पेड़ों से घिरा होने के कारण गांव की पहचान करना आसान भी नहीं था।
अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों ने दिल्ली के नजदीक होने के कारण नलगढ़ा को अपना ठिकाना चुना था। वह यहां तीन वर्ष तक छिपकर रहे। अंग्रेज सेना पर हमला करने की रणनीति बनाने के अलावा आंदोलन को सही रास्ता देने के लिए भी योजना बनाते थे। यहां शहीद विजय सिंह पथिक का बड़ा आश्रम था। वह गांवों के नौजवानों को आजादी की लड़ाई का आश्रम में प्रशिक्षण देते थे। इसका देश के अन्य क्रांतिकारियों ने भी फायदा उठाया।
घोड़े पर जाते थे क्रांतिकारी
विजय सिंह पथिक के पास अच्छी नस्ल के घोड़े थे। क्रांतिकारी इन पर सवार होकर अपनी मंजिल तक पहुंचते थे। बारूद से बम भी बनाए जाते थे। ट्रेन में सफर कर रहे अंग्रेज वायसराय को मारने की योजना भी नलगढ़ा गांव के जंगलों में बनी थी। लेकिन हमले के वक्त दूसरी बोगी में होने के कारण वह बच गया। इस घटना के बाद अंग्रेजी सेना को क्रांतिकारियों के नलगढ़ा में छिपने की जानकारी मिली।
इसके बाद नलगढ़ा गांव की घेराबंदी कर क्रांतिकारियों को पकड़ने का प्रयास किया गया, लेकिन वह अंग्रेज सेना को चकमा देकर भाग निकले। बम बनाने के लिए बारूद व अन्य सामग्रियों को जिस पत्थर पर रखकर मिलाया जाता था। वह ऐतिहासिक पत्थर आज भी गांव में मौजूद है। पत्थर में दो गढ्ढे हैं, जिसमें बारूद को मिलाया जाता था। इन निशानियों को ग्रामीणों ने सहेज कर रखा है।
वतन पर मर मिटने के लिए संदेश दिया
‘तुम्हें जिबह करने की खुशी है और मुझे मरने का शौक, मेरी भी वही ख्वाहिश है, जो मेरे सैयाद की है’। अपने साथियों राजगुरु व सुखदेव के साथ 23 मार्च-1931 के दिन शहादत देने से पूर्व शहीदे आजम सरदार भगत सिंह ने इन पंक्तियों के जरिए भरी जवानी में वतन पर मर मिटने के लिए तैयार होने का संदेश दिया था।
जेल में रहने के दौरान लिखी डायरी
लाहौर जेल में रहते हुए शहीद-ए-आजम ने 12 सितंबर 1929 से एक डायरी लिखनी शुरू की थी और शहादत से अंतिम दिन पूर्व 22 मार्च 1931 तक डायरी लिखी थी। अंग्रेजी व उर्दू में लिखी गई यह मूल डायरी भगत सिंह के प्रपौत्र यादविंदर सिंह संधू (भगत सिंह के भाई कुलविंदर सिंह के प्रपौत्र) के पास अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित है और पिछले सालों में उन्होंने इस डायरी के पन्नों की स्कैन प्रतियों के साथ-साथ अंग्रेजी में अनुवाद कराया था और इसे रिलीज कराया था।
Source :- https://www.jagran.com