Tuesday, February 18, 2025
HomeमनोरंजनMOVIE REVIEW: असली महानायकों की दास्तान है 'केसरी'

MOVIE REVIEW: असली महानायकों की दास्तान है ‘केसरी’

सिर्फ इक्कीस सिख सिपाहियों ने दस हजार से ज्यादा अफगानों को तब तक रोके रखा, जब तक कि आखिरी सिपाही नहीं शहीद हो गया।

फिल्म: केसरी
कलाकार: अक्षय कुमार, परिणीति चोपड़ा, राकेश चतुर्वेदी, विक्रम कोचर, सुविंदर विक्की, वंश भारद्वाज, सुरमीत सिंह बेसरा, अश्वत्थ भट्ट, मीर सरवर

12 सितंबर 1897 को तत्कालीन भारत के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत (अब पाकिस्तान का खैबर पख्तुनवा प्रांत) में हुई ह्यसारागढ़ी की लड़ाईह्ण भारत ही नहीं, विश्व इतिहास की सबसे गौरवपूर्ण गाथाओं में से एक है। सुबह से शाम तक चली इस लड़ाई सिख सैनिकों ने जिस शौर्य का प्रदर्शन किया था, वह अतुलनीय है। सिर्फ इक्कीस सिख सिपाहियों ने दस हजार से ज्यादा अफगानों को तब तक रोके रखा, जब तक कि आखिरी सिपाही नहीं शहीद हो गया। इस लड़ाई में 21 सिख सैनिक और करीब 600 अफगान मारे गए थे। दो दिन बाद ब्रिटिश भारतीय फौज की एक दूसरी टुकड़ी ने अफगानों को खदेड़ कर सारागढ़ी पर फिर से कब्जा कर लिया था।

लेकिन क्या विडंबना है कि शौर्य की इस महान गाथा के बारे में अधिकांश भारतीयों को पता नहीं है। इसमें दोष उनका नहीं है। दरअसल, सारागढ़ी में तैनात ब्रिटिश भारतीय सेना के ह्य36 सिख बटालियनह्ण के इस गौरवशाली इतिहास को भारत के आधुनिक इतिहासकारों ने वह महत्व नहीं दिया, जो इसे मिलना चाहिए था। इस लड़ाई में शहीद सभी 21 सिख सैनिकों (नॉन-कमीशंड ऑफिसर) को तब मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ह्यइंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिटह्ण से सम्मानित किया गया, जो ह्यविक्टोरिया क्रॉसह्ण और अब के ह्यपरमवीर चक्रह्ण के समकक्ष था।  
अनुराग सिंह निर्देशित अक्षय कुमार की ह्यकेसरीह्ण इस इतिहास के प्रति युवा पीढ़ी में उत्सुकता जगाने का काम कर सकती है। जाहिर है, लोकप्रिय धारा के बड़े फिल्मकार अमूमन किसी भी कहानी को बड़े पर्दे पर पेश करने का साहस तभी लेते हैं, जब उन्हें कहानी में व्यावसायिक संभावनाएं नजर आती हैं। ह्यकेसरीह्ण को बनाने के पीछे भी यह गणित होगा, इसके बावजूद इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक ऐसी घटना को पर्दे पर लाने का फैसला किया, जो एक भारतीय के रूप में हमें गौरवान्वित होने का अवसर देती है।

बहरहाल, अब बात फिल्म की। हवलदार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) और उसका साथी गुलाब सिंह (विक्रम कोचर) नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत के गुलिस्तान फोर्ट में तैनात है, जो अफगानिस्तान और भारत की सीमा पर स्थित है। इस फोर्ट पर कब्जा करने के लिए समय-समय पर अफगान धावा बोलते रहते हैं, लेकिन हर बार नाकाम हो जाते हैं। एक दिन सीमा पार एक मौलवी (राकेश चतुर्वेदी) के नेतृत्व में कुछ अफगान एक औरत (तोरांज केवोन) को मौत की सजा दे रहे हैं, क्योंकि वह अपने पति को छोड़ कर भागने की कोशिश करती है। ईशर सिंह से यह देखा नहीं जाता है और वह अपने अंग्रेज अफसर के आदेश की अवहेलना करके उस औरत की रक्षा करता है। इस बेअदबी की वजह से उसका ट्रांसफर सारागढ़ी कर दिया जाता है। सारागढ़ी फोर्ट का इस्तेमाल गुलिस्तान फोर्ट और लोकार्ट पोस्ट के बीच संपर्क पोस्ट के रूप में किया जाता है। ईशर सारागढ़ी आकर पोस्ट के इंचार्ज का कार्यभार संभालता है। उधर ईशर के कारनामे से भड़का मौलवी अफगान सरदारों गुल बादशाह खान (अश्वत्थ भट्ट) और खान मसूद (मीर सरवर) को एक साथ मिल कर सारागढ़ी, गुलिस्तान और लोकार्ट फोर्ट पर हमला करने के लिए तैयार कर लेता है। 12 सितंबर 1897 को दस हजार से ज्यादा अफगान सारागढ़ी पहुंच जाते हैं और सिख सैनिकों से सरेंडर करने के लिए कहते हैं। सहायता के लिए सारागढ़ी से लोकार्ट संदेश भेजा जाता है, लेकिन 36 सिख बटालियन को तत्काल सहायता नहीं मिल पाती। फिर ईशर सिंह के नेतृत्व में सिख सिपाही आखिरी दम तक लड़ने का फैसला करते हैं। ईशर सिंह अपनी पुरानी पगड़ी उतार कर केसरी पगड़ी पहन लेता है, क्योंकि केसरी शौर्य का प्रतीक है।

फिल्म की स्क्रिप्ट बहुत अच्छी तरह से लिखी गई है। इस पर काफी शोध किया गया है। एक पोस्ट से दूसरे पोस्ट तक संदेश भेजने के लिए जिस पद्धति का इस्तेमाल किया गया है, वह प्रामाणिक लगता है। लेखक गिरीश कोहली और निर्देशक अनुराग सिंह ने हर पात्र को उभरने का पूरा मौका दिया है। किरदारों को अच्छी तरह से गढ़ा गया है। कहानी में शौर्य के साथ भावनाओं को इस तरह बुना गया है कि वह दर्शकों के दिलों में घर कर जाती है। इस फिल्म में हल्के-फुल्के क्षण भी हैं, जो एकरसता को तोड़ते हैं और गुदगुदाते हैं। हालांकि फिल्म में कुछ चीजें अस्वाभाविक भी लगती हैं, पर अखरती नहीं हैं। अक्षय कुमार के कुछ एक्शन दृश्यों में ह्यबॉलीवुडिया शैलीह्ण की छाप साफतौर पर दिखती है।

 इस फिल्म की एक और खासियत है कि इसमें कहीं भी दो सांप्रदायिक वैमनस्य की बात नहीं की गई है। निर्देशक संतुलित अंदाज में अपनी बात को कहने में सफल रहे हैं। हालांकि इस ऐतिहासिक फिल्म में सिनेमाई छूट ली गई है, फिर भी सारागढ़ी की लड़ाई का चित्रण प्रामाणिक लगता है। गीत-संगीत, सेट, बैकग्राउंड संगीत, संवाद बिल्कुल फिल्म के मिजाज के मुताबिक हैं। बैकग्राउंड में जब गुरुगोविंद सिंह द्वारा रचित ह्यदे वर मोहे शिवा निश्चय कर अपनी जीत करूंह्ण बजता है, तो थियेटर में एक अलग तरह का वातावरण निर्मित हो जाता है। फिल्म की सिनमेटोग्राफी शानदार है। हालांकि फिल्म की लंबाई थोड़ी कम रखी जा सकती थी। निर्देशक अनुराग सिंह पंजाबी फिल्मों का बड़ा नाम हैं। उन्होंने पंजाबी में ह्यपंजाब 1984ह्ण और ह्यजट्ट एंड जूलियटह्ण सिरीज जैसी बड़ी हिट फिल्में निर्देशित की हैं। वह हिन्दी में भी ह्यरकीबह्ण (2007) और ह्यदिल बोले हड़ीप्पाह्ण (2009) जैसी अति साधारण और असफल फिल्में निर्देशित कर चुके हैं। लेकिन वे बतौर निर्देशक ह्यकेसरीह्ण में एक अलग छाप छोड़ते हैं।

अक्षय कुमार का अभिनय बेहतरीन हैं। उनका गेटअप भी शानदार है। वे पूरी तरह ईशर सिंह लगते हैं। वैसे गेटअप सारे किरदारों का बढ़िया है। यह अक्षय का अब तक का सबसे बढ़िया अभिनय है। मौलवी के रूप में राकेश चतुर्वेदी का अभिनय भी याद रह जाता है। फिल्म में जितने भी और कलाकार हैं, वह भी अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं। ह्यकेसरीह्ण को देखने के बाद जब हम सिनेमाहॉल से बाहर निकलते हैं, तो जेहन में अनायास ही ये पंक्तियां गूंजने लगती हैं- ह्यसूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत/ पुर्जा पुर्जा कट मरे कबहुं न छाड़े खेतह्ण। निश्चित रूप से यह फिल्म अपनी बात दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब है। एक कालजयी गाथा पर बनी यह फिल्म सिनेमाई श्रेष्ठता की दृष्टि से भले एक कालजयी फिल्म न हो, लेकिन उत्कृष्ट जरूर है। सिनेमा में अगर आपकी ज्यादा रुचि न हो, तो भी आपको यह फिल्म देखनी चाहिए।

Source :- www.livehindustan.com

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Must Read

spot_img

Discover more from UP News |Hindi News | Breaking News

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading