Friday, December 6, 2024
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इस वेलेंटाइन डे पर कहें अपने दिल की बात इन बेहद खास कोट्स इमेजेस के जरिए

मध्यकालीन पंजाबी साहित्य में चार धाराओं को प्रमुख माना जाता है जिनमें लोक साहित्य, सूफी साहित्य, गुरबाणी साहित्य और क़िस्सा साहित्य शामिल हैं.

क़िस्सा साहित्य का उल्लेख हर धारा में मिलता है. क़िस्सा साहित्य का जन्म फ़ारसी की मसनवी और संस्कृत में प्रेमाख्यान से जुड़ता है और इनमें पंजाब के भूगोल, संस्कृति और सामाजिक जीवन की विशेषताएं भी समाई होती हैं.

क़िस्सा काव्य में प्रेमी भौगोलिक, सामाजिक दस्तूर और सांस्कृतिक बंदिशों को पार कर के एक-दूसरे के प्यार में कुर्बान होते हैं. इस मौखिक रिवायत का ज़िक्र भाई गुरुदास की वारों में मिलता है जो सोलहवी-सत्रहवीं सदी में रहे और सिखों के धार्मिक ग्रंथ, आदि ग्रंथ के पहले लिपिक थे.

क़िस्सों को 1880 के दशक में बर्तानवी मानव विज्ञानियों ने मौखिक से लिखित में दर्ज किया.

हर क़िस्से को अलग-अलग कवियों ने लिखा है पर फिर भी हर क़िस्से को किसी एक क़िस्साकार के साथ ज़्यादा जोड़ा जाता है. जैसे हीर-राँझा को वारिस शाह, सोहनी-महिवाल को फ़ज़ल शाह, सस्सी-पुन्नू को हाशिम शाह के साथ और इसी तरह मिर्ज़ा-साहिबा को पीलू के साथ जोड़ा जाता है.

हीर-रांझा

मौखिक से लिखित में दर्ज होने वाली पंजाबी भाषा की सबसे पहली प्रेम गाथा हीर-राँझा है. दामोदर की लिखी हुई हीर, जिनके जीवन का विवरण विवादित है. इसके बाद कई लेखकों ने इस किस्से को अलग-अलग दौर में लिखा है पर सबसे मक़बूल ‘वारिस शाह’ का किस्सा मन जाता है.

प्रेम कहानियों
Image captionहीर-रांझा की पेंटिंग

हीर सियाल कबीले की बेहद खूबसूरत लड़की है जिसने बचपन में ही कुरान को ज़ुबानी याद कर लिया है. तख़्तहज़ारा गांव का राँझा अपने चार भाईयों में सबसे छोटा है और पिता का लाडला होने के बावजूद भाईओं और भाभियों की बेरुखी से परेशान होकर घर छोड़ देता है.

प्रेम कहानियों
Image captionहीर-रांझा की पेंटिंग

वो हीर के पिता की भैंसों को चराने का काम करता है. हीर के साथ इश्क और भैंसों को चराने का काम बारह साल चलता है. इसके बाद हीर की शादी सैदा खेड़ा के साथ कर दी जाती है और राँझा गोरखनाथ से दीक्षा लेकर संन्यासी हो जाता है. भिक्षा मांगते-मांगते वह हीर के ससुराल पहुंच जाता है.

इसके बाद वह दोनों हीर के गांव चले जाते हैं यहां उनकी शादी का वादा किया जाता है पर बाद में हीर को ज़हर दे कर मार दिया जाता है.

इस किस्से के अंत को अलग-अलग क़िस्साकारों ने अलग-अलग ढंग से बयां किया है और अंत में भी विविधताएं हैं.

मिर्ज़ा-साहिबा

पीलू के अलावा हाफ़िज़ बरखुद्दार, मुल्तानी, हाशिम शाह और भगवान सिंह ने भी यह क़िस्सा लिखा है. तमाम विविधताओं के चलते मिर्ज़ा-साहिबा के क़िस्से का चौखटा इस तरह है.

मिर्ज़ा खरल कबीले का लड़का है जो दानाबाद गांव में पैदा हुआ. वह सियाल कबीले में अपने मामा, वंजल खान के गांव खीवा में पलता है. वंजल खान की बेटी और मिर्ज़ा एक साथ गांव की मस्जिद में पढ़ने जाते हैं. बचपन का लगाव प्यार में बदल जाता है. साहिबा के भाइयों को उसका मिर्ज़ा के साथ मिलना बिल्कुल पसंद नहीं है. वंजल खान के परिवार के अंदर मिर्ज़ा-साहिबा के रिश्ते को लेकर दो मत हैं. जवान हो रहे बेटों का घर के फैसलों में दखल इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करता.

साहिबा के भाई शमीर को मिर्ज़ा बिलकुल पसंद नहीं है. दोनों में बेहतर तीर-अंदाज़ और घुड़सवार होने का भी मुकाबला है. यह मुकाबला साहिबा की किस्मत का फैसला करने के अधिकार के मामले में भी है. मिर्ज़ा अपने प्यार और ताकत के दम पर साहिबा को पाना चाहता है और दूसरी तरफ शमीर अपने प्यार और परिवार में पितृसत्ता के दावेदार के तौर पर साहिबा की ‘अच्छाई-भलाई’ का फैसला अपने हाथ में लेना चाहता है.

मिर्ज़ा को उसके गांव दानाबाद भेज दिया जाता है और साहिबा का निकाह चंदढ कबीले में ताहिर खान के साथ तय कर दिया जाता है.

मिर्ज़ा को ख़बर मिलती है तो वह अपनी बग्गी (घोड़ी) पर सवार होकर आता है और साहिबा को शादी के दिन भगा कर ले जाता है.

बग्गी थक जाती है और मिर्ज़ा भी आराम करना चाहता है. साहिबा ख़ून-ख़राबा नहीं चाहती और उसे लगता है कि वह अपने भाइयों को मना लेगी. साहिबा मिर्ज़ा को रोकने के लिए उसके तीर तोड़ देती है पर अपने भाइयों को नहीं रोक पाती. साहिबा के भाई और चंदढ कबीले के लोग उन्हें घेर लेते हैं. मिर्ज़ा मारा जाता है और साहिबा कुछ किस्सों में कत्ल कर दी जाती है और कुछ में खुदकशी कर लेती है.

खुल्ला आसमान, कच्ची जगह और बीहड़ में कत्ल हुए मिर्ज़ा-साहिबा उस काल-मुक्त इतिहास के बिंब बन जाते है जिसके पन्ने प्यार के ख़िलाफ़ हिंसा से सने हैं.

सोहनी-महिवाल

बुखारा (मौजूदा उज़बेकिस्तान का शहर) के अमीर व्यापारी का बेटा इज़्ज़त बेग़ अपने कारोबार के सिलसिले में पंजाब के शहर गुजरात में काम करता है. एक दिन उसकी तुलहा कुम्हार की बेटी सोहनी से मुलाकात होती है जिसे देख कर वह उसे देखता ही रह जाता है.

अपनी सारी पूंजी लुटा कर वह तुलहा का नौकर बन जाता है. उनकी भैंसों को चराने के कारण ही इज़्ज़त बेग़ को महिवाल (भैंसों का चरवाहा) का नाम मिलता है. तुलहा को अपनी बेटी के प्यार का पता चलता है तो महिवाल को बेइज़्ज़त किया जाता है और सोहनी की कहीं और शादी कर दी जाती है.

महिवाल हर दिन चिनाब दरिया पार करने करके सोहनी से मिलने आता है और मछली पका कर लाता है. एक दिन मछली न मिलने के कारण वह अपनी जांघ का मास चीर कर पका लाता है. सोहनी को ये पता चलता है तो फ़ैसला होता है कि वह चिनाब को पार करके रात को महिवाल से मिलने आया करेगी.

सोहनी के रात को बाहर जाने की ख़बर उसकी ननद को मिलती है तो वह उसका पीछा करती है और सोहनी को एक घड़े के सहारे तैर कर चिनाव पार करते हुए देखती है.

अगले दिन वह सोहनी का पक्का घड़ा उठा कर वहां पर कच्चा घड़ा रख देती है. सोहनी कच्चे घड़े का अंदाज़ा लग जाने और चिनाब में बाढ़ के बावजूद महिवाल से मिलने का फैसला करती है. सोहनी के इंतज़ार में बेक़रार महिवाल दूसरी तरफ से दरिया में कूद जाता है और दोनों बाढ़ में बह जाते हैं.

प्रेम कहानियों में दरिया की अहमियत

इन प्रेम गाथाओं में दरिया को पार करना बहुत अहम है और इसके इर्द-गिर्द ही सब कुछ होता है. यहां पर नज़्म हुसैन सय्यद का कथन ‘दरिया के इस तरफ मां-बाप का हुक्म चलता है-सभी स्कूल, कॉलेज, अदालतें, दफ्तर, मंदिर, मस्जिदें, तकिए, अदारे, थिएटर, क्लब, चकले, शराबख़ाने मां-बाप के हुक्म से जुड़ें हैं यह हमें मां-बाप की रियासत में घेरे रखने में लगे रहते हैं’ महत्वपूर्ण है.

प्यार, प्रेम कहानी

फ़रीना मीर पंजाबी क़िस्सा साहित्य में फ़ारसी-इस्लामी रिवायत की निरंतरता देखती हैं और साथ ही इसके स्वरूप की विशेषता को भी अंकित करती हैं. एक तरफ वह क़िस्सा साहित्य में ‘मंगलाचरण’ की परंपरा को फ़ारसी-इस्लामी रिवायत में मसनवी के वंश-क्रम को देखती हैं और दूसरी तरफ पंजाब के सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल के मुताबिक आई तब्दीलियों के कारण इसे स्थानीयता से जुड़ा हुआ पाती हैं.

वह मानती हैं कि यह रूहानी दस्तूर कोई समन्वयात्मक रुझान नहीं है बल्कि यह समानांतर रूहानी दस्तूर है जिसमें हर धर्म के पंजाबी लोग शामिल हो जाते हैं.

नज़्म हुसैन सैय्यद इसी तरह राँझा और काजी के बीच के संवादों से मस्जिद और आवाम के रिश्ते को समझते हैं. साहिबा के किरदार के बारे में नज़्म हुसैन सैय्यद लिखते हैं, ‘साहिबा ना तो खीवा में रह सकती है और ना ही दानाबाद में रह सकती है. वह सिर्फ बक्की की पीठ पर रह सकती है.’

अपने लेख ‘नदियों पार राझण दा ठाणा’ में नज़्म हुसैन सैय्यद प्रेम गाथाओं के हवाले से लिखते हैं कि ”हीर-राँझा और सोहनी महिवाल में दरिया, सस्सी-पुन्नू में रेगिस्तान और मिर्ज़ा-साहिबा में बीहड़ में निज़ाम के पहरेदार हैं.”

इन्हें पार किये बिना प्रेमी के प्रेमनगर नहीं पहुंचा जा सकता. यह निज़ाम की तरफ से डरातें हैं और प्रेमनगर का सपना देखने वालों को चुनौती देतें हैं.

नज़्म लिखते हैं कि ”प्रेम की राह पर दरिया, रेगिस्तान और बीहड़ की चुनौती को स्वीकार करने और यहीं आगे बढ़ने का हौसला देतें हैं पर पुराने निज़ाम के अंदर ही नये स्थान की दावेदारी करना मौत का रास्ता है. राँझा तख़्त हज़ारा से झंग जा सकता है पर हीर से शादी करके वापिस नहीं लौट सकता था.

मिर्ज़ा घुड़सवार होकर साहिबा के पास खीवा तो पहुंच सकता है पर उसे लेकर दानाबाद नहीं लौट सकता. महिवाल अपने मां-बाप के घर बुख़ारा नहीं लौट सका और सस्सी रेगिस्तान को पार करके पुन्नू के पास नहीं जा सकी.

यह सभी पैतृक सत्ता से विद्रोह करके चले हैं और इस विद्रोह के बाद पैतृक समाज में इनके लिए कोई जगह नहीं है. इनका दरिया में डूबना, रेगिस्तान में भस्म हो जाना और बीहड़ में कत्ल होना तय है क्योंकि यह निज़ाम की सरहदें हैं जिनका रक्षा के लिए निज़ाम बेअंत और बेहिसाब ताकत का इस्तेमाल कर सकता है.”

”समकालीन माहौल में प्रेम और प्रेम संबंधों के बारे में बहुत बहस हो रही है और इस बहस में मजहब, दस्तूर और रुतबे शामिल होते है तो लहू भी बहता है. हरनाम सिंह शान अपने लेख ‘त्रासदी पूर्ण प्रेम गाथाए: पूर्व और पश्चिम’ में लिखतें है कि ”प्रेम गाथाएं मानवीय नस्ल की रिवायत में मौखिक से लेकर लिखित साहित्य में सबसे लोकप्रिय और अमीर परंपरा है. इनका स्रोत साझा, आकर्षण और सर्वव्यापी है.”

शान लिखते हैं, ”प्रेम गाथाएं सिर्फ अपनी मौलिक, भौगोलिक सीमाओं को ही पार नहीं करती बल्कि अपना प्रभाव चारों तरफ बढ़ातीं हैं.’

शान दरअसल इसाक डिसरेली की बात को दुहरा रहे हैं जो लिखते हैं, ‘अफ़सानों के पंख होते हैं. वे चाहे पश्चिम से आएं या पूर्व से, जहां पर पैर डालते हैं वहीं आबाद हो जाते हैं.’

Sources :- bbc.com

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