अयोध्या-बाबरी विवाद के लिए पुनर्गठित की गई 5 सदस्यीय बेंच 29 जनवरी को सुनवाई नहीं कर पाएगी। न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक, जस्टिस एसए बोबडे इस दिन उपलब्ध नहीं हैं।
नई दिल्ली. अयोध्या-बाबरी विवाद के लिए पुनर्गठित की गई 5 सदस्यीय बेंच 29 जनवरी को सुनवाई नहीं कर पाएगी। न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक, जस्टिस एसए बोबडे इस दिन उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में बेंच सुनवाई नहीं कर सकेगी। सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट के सितंबर 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर होनी है।
- 5 जजों की बेंच को करनी थी सुनवाई, लेकिन जस्टिस बोबडे नहीं रहेंगे उपलब्ध
- 25 जनवरी को 5 सदस्यीय बेंच का पुनर्गठन किया गया था
- इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर होनी है सुनवाई
सुनवाई की तारीख टलने के बाद बाबा रामदेव ने कहा कि अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण के लिए सुप्रीम कोर्ट और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को ही फैसला लेना है। सुप्रीम कोर्ट में तो जल्द फैसले की संभावना नजर नहीं आ रही है। ऐसे में अब मोदी सरकार को ही कुछ कदम उठाने होंगे।
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बेंच में जस्टिस भूषण और जस्टिस नजीर शामिल किए गए
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जस्टिस रंजन गोगोई ने 25 जनवरी को अयोध्या विवाद की सुनवाई के लिए बेंच का पुनर्गठन किया था। जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर को शामिल किया गया। अब बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एसए नजीर शामिल हैं। पुनर्गठन में जस्टिस एनवी रमण को शामिल नहीं किया गया।
संवैधानिक बेंच से अलग हो गए थे जस्टिस यूयू ललित
इससे पहले 10 जनवरी को 5 जजों की संवैधानिक बेंच ने इस मामले पर सुनवाई शुरू की थी। लेकिन, कोर्ट में सुनवाई शुरू होते ही सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील राजीव धवन ने पांच जजों की बेंच में जस्टिस यूयू ललित के होने पर सवाल उठाया। इसके बाद जस्टिस ललित खुद ही बेंच से अलग हो गए। पांच जजों की बेंच में जस्टिस यूयू ललित के अलावा, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एनवी रमण और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ शामिल थे।
क्या था इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला?
हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने 30 सितंबर, 2010 को 2:1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। इस फैसले को किसी भी पक्ष ने नहीं माना और उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। शीर्ष अदालत ने 9 मई 2011 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट में यह केस पिछले आठ साल से लंबित है।
Sources :- bhaskar.com